ड्रामा का सीन बदले लेकिन हमारी श्रेष्ठ स्व स्थिति न बदले:मनोज श्रीवास्तव

शुद्ध अन्न से मन और तन दोनों शुद्ध हो जाता हैं। इसी तरह से अगर धन भी अशुद्ध आता है तो अशुद्ध धन हमारे खुशी को गायब कर देता है। क्योकि अशुद्ध धन चिंता को भी लाता है। जितना अशुद्ध धन आता, माना धन आयेगा एक लाख लेकिन चिंता आयेगी पद्मगुणा और चिंता को सदैव चिता कहा जाता है। प्रश्न है चिता पर बैठने वाले को कभी खुशी कैसी होगी! और अशुद्ध धन भी अशुद्ध मन से आता है अर्थात पहले मन में अशुद्ध संकल्प आता है। लेकिन शुद्ध अन्न मन को शुद्ध बना देता है इसलिए धन भी शुद्ध हो जाता है। यदि मन शुद्ध होगा तब धन भी शुद्ध होगा। परमात्मा की याद अन्न का महत्त्व है, इसलिए ब्रह्मा भोजन की महिमा है। अगर याद में नहीं बनाते और खाते तो यह अन्न स्थिति को ऊपर नीचे कर सकता है। याद में बनाया हुआ और याद में स्वीकार करने वाला अन्न दवाई का भी काम करता और दुवा का भी काम करता। परमात्मा याद का अन्न कभी नुकसान नहीं कर सकता।
मन शुद्ध रहने पर हर घड़ी उत्सव का हो जाता है । जीवन के हर खेल को साक्षी होकर देखो, स्वयं माया के चक्र में न आ जाओ। चक्र में आ जाते है तो घबरा जाते है।
यदि माया आ जाये तब माया के साथ श्रेष्ठ स्थिति से चले न जाय, माया को जाने दो। आप उसके साथ क्यों जाते हो?
जीवन एक खेल है। खेल में होता ही ऐसे है कुछ आयेगा, कुछ जायेगा, कुछ बदलेगा। अगर सीन बदली न हो तो खेल अच्छा ही नहीं लगेगा। माया भी किसी भी रूप से आए, जो भी सीन आती है वह बदलनी ज़रूर है। तो सीन बदलती रहे लेकिन आपकी श्रेष्ठ स्थिति नहीं बदले।
सीन बदलते ही क्या हम भी उसके साथ ऐसे ही भागने वा दौड़ने लग जायेंगे क्या? देखने वाले तो सिर्फ देखते रहेंगे न कि भागने दौड़ने लगेंगे।। अर्थात लाख माया नीचे गिराने के लिए आये या कोई भी स्वरूप में आये लेकिन आप उसका खेल देखो कैसे नीचे गिराने के लिए आई, उसके रूप को कैच करो और खेल समझ उस दृश्य को साक्षी हो करके देखो। आगे के लिए और स्व की स्थिति को मजबूत बनाने की शिक्षा ले कर आगे बढ़ जाए ।
जीवन मे उत्सव है और उत्साह साथ है। इस स्लोगन को सदा याद रखना और अनुभव करते रहना। उसकी विधि सिर्फ दो शब्दों की है। ‘सदा साक्षी हो करके देखना और परमात्मा के साथी बन करके रहना।’
कमजोरी के संकल्प का समर्पण करने से शक्तिशाली बन जाते है। यदि कमजोरी के संकल्प परमात्मा के आगे रख लिया, दे दिया तो जो चीज किसको दी जाती है वह अपनी नहीं रहती, वह दूसरे की हो जाती है। अगर कमजोरी का संकल्प भी परमात्मा के आगे रख दिया तो वह कमज़ोरी आपकी नहीं रहीं। आपने दे दी, उससे मुक्त हो गये।
अशुद्ध धन भी अशुद्ध मन से आता है,पहले अशुद्ध संकल्प ही आता है।
अशुद्ध धन खुशी को गायब कर देता है,
जैसा धन,वैसा अन्न,वैसा मन और तन।
जो भी सीन आ जाये वह बदलेगी जरूर,
इसलिये सीन बदलती रहे लेकिन श्रेष्ठ स्थिति न बदले।
“जितना अपना उद्धार करेंगे, उतना औरों का भी उद्धार कर सकेंगे,
और जितना औरों का उद्धार करेंगे, उतना अपना भी उद्धार करेंगे।
अपना ही उद्धार न करेंगे तो औरों का उद्धार कैसे करेंगे।”
अपने शांत स्वरूप में स्थित रहना अर्थात जितना हो सके देह अभिमान -ईगो छोड़ कर,देहीभिमान-सेल्फ रेस्पेक्ट में रहना,
डेड साइलेन्स अर्थात अशरीरी में रहने का अभ्यास।
व्यर्थ का बोझ और जिम्मेदारी का बोझ परमात्मा पर छोड़ देने से उन्नति सहज ही होगी।
दृढ़ता की कमी के कारण सोचने और करने में अंतर आ जाता है।
कुछ भी आवे, कुछ भी हो जाए, परिस्थिति रूपी बड़े ते बड़ा पहाड़ भी आ जाये, संस्कार टक्कर खाने के बादल भी आ जाये, प्रकृति भी पेपर ले ,
लेकिन अंगद समान मन बुद्धि रूपी पांव हिलाना नहीं, अचल रहना।
ज्ञान स्वरूप वह है जिसका हर संकल्प,हर सेकेंड समर्थ हो।
मनन वाला स्वतः मगन रहता है।
स्व में स्थित रहना अर्थात स्वस्थ रहना।
सत्यता, प्रत्यक्षता का आधार है