

उत्तराखण्ड कांग्रेस में तेजी से बहुत कुछ बदल रहा है। विगत् विधानसभा चुनावों में भारी पराजय के बाद हार का सारा ठीकरा तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत पर मढ़ दिया गया था। रावत को 2017 के बाद से राज्य की राजनीति से बाहर करने का अथक श्रम कांग्रेस के ही एक गुट ने जमकर किया। कभी हरीश रावत के खास सिपहसालार कहलाए जाने वाले नेता प्रीतम सिंह ने अपने राजनीतिक गुरु को धता बता प्रदेश की राजनीति में रावत की सबसे बड़ी आलोचक डाॅ इंदिरा हृदयेश का हाथ थाम लिया। हृदयेश-प्रीतम जोड़ी ने प्रदेश कांग्रेस संगठन से रावत समर्थकों को बाहर करने और रावत विरोधियों को संगठन में महत्व देने की नीति बना रावत को अप्रासंगिक करने की व्यूह रचना रची। राजनीति को हर पल जीने वाली डाॅ इंदिरा हृदयेश का साथ और संगठन की चाबी प्रीतम के हाथों में आने के चलते रावत के वे समर्थक भी विचलित होते नजर आए जिनको राजनीति में रावत ने ही स्थापित किया था। रावत समर्थक कई पूर्व विधायक हृदयेश-प्रीतम संग नजदीकियां बढ़ाने में जुट गए। ज्यादातर इस मुगालते का शिकार हो गए कि रावत का वक्त समाप्त हो चला है। हृदयेश-प्रीतम की रणनीति कारगर होती नजर आने ही लगी थी कि रावत ‘बाउंसबैक’ कर गए। कांग्रेस की सबसे पावरफुल कमेटी सीडब्ल्यूसी का स्थाई सदस्य और महासचिव बनने के साथ ही हरीश ने ‘सिंघम रिटनर्स’ की तर्ज पर एक बार फिर से अपनी पोजीशनिंग करनी शुरू कर दी। उनकी रणनीति उन जमीनी मुद्दों को फोकस में लाने की रही जिन्हें नजरअंदाज करने का खामियाजा बीस बरस के उत्तराखण्ड पर भारी पड़ा है। रावत ने राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के उद्देश्य से कृषि, बागवानी और सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों पर जोर देने की मुहिम शुरू कर डाली। जनता से कनेक्ट स्थापित करने की उनकी योजना भी अनूठी रही। उत्तराखण्डियत को आगे कर रावत पहाड़ी फलों और व्यंजनों के मार्केटिंग और ब्रांड बन गए। उनके द्वारा कभी ‘काफल पार्टी’, ‘नीबू सान पार्टी’ तो कभी ठेठ उत्तराखण्डी भोजन की पार्टी का आयोजन करना न केवल जनता से सीधे कनेक्ट का जरिया बना, स्वयं हरीश रावत अपने को प्रासंगिक बनाए रखने में सफल रहे। उनकी यह रणनीति हृदयेश-प्रीतम की ‘हरीश हटाओ-हरीश भगाओ’ की नीति पर भारी पड़ती स्पष्ट नजर आने लगी तो बजरिए तत्कालीन राज्य प्रभारी अनुग्रह नारायण सिंह के जरिए केंद्रीय नेतृत्व को संदेश दिया गया कि रावत ेके नेतृत्व में न केवल कांग्रेस चुनाव दोबारा हार जाएगी, बल्कि बड़े पैमाने पर बगावत भी हो जाएगी।
पार्टी सूत्रों का कहना है कि तत्कालीन प्रभारी ने यहां तक नेतृत्व को कह डाला कि हृदयेश और प्रीतम तक पार्टी छोड़ भाजपा में जा सकते हैं। रावत विरोधियों की मुहिम को दूसरा बड़ा झटका सितंबर 2020 में तब लगा जब प्रदेश नेताओं की आपसी कलह को रोक पाने में असफल रहे अनुग्रह नारायण को हटा देवेंद्र यादव को प्रदेश प्रभारी बना दियागया। पार्टी के वरिष्ठ नेता का मानना है कि शुरुआती दौर में देवेंद्र यादव का झुकाव भी हृदयेश-प्रीतम खेमे की तरफ रहा लेकिन जैसे ही यादव ने उत्तराखण्ड के दूरस्थ और दुर्गम इलाकों का दौरा शुरू किया उन्हें जमीनी हकीकत समझ आ गई। यादव की पहल पर कांग्रेस आलाकमान ने पांच फरवरी को 2022 के चुनाव की रणनीति बनाने के लिए एक 13 सदस्यीय कमेटी का गठन किया। इस कमेटी में हरीश रावत, डाॅ इंदिरा हृदयेश, प्रीतम सिंह, किशोर उपाध्याय, प्रदीप टम्टा, करण माहरा इत्यादि शामिल है। डाॅ हृदयेश की आकस्मिक मृत्यु ने लेकिन सारे समीकरण बदल डाले हैं। उनके न रहने से न केवल राज्य की राजनीति में बड़ा शून्य पैदा हुआ है, हरीश रावत विरोधी ताकतें भी एकदम से पस्त पड़ गई है। हालांकि रावत को आगे कर 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने की बात इंदिरा हृदयेश के रहते ही पार्टी आलाकमान ने तय कर दी थी। अब इस मुद्दे पर खुलकर विरोध वाली सबसे सशक्त ताकत के न रहने पर घोर रावत विरोधी भी वापस रावत के पक्षधर बनने की राह तलाशने में जुट गए हैं। 24 अकबर रोड से छनकर आ रही खबरों के अनुसार वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाया जा रहा है। उनके स्थान पर किसी ब्राह्मण चेहरे को बतौर पार्टी अध्यक्ष बना चुनाव की कमान हरीश रावत को सौंपने का निर्णय फाइनल कर दिया गया है।